मिसरे तरह
"मग़मूम ग़मे शह में ज़माने की फ़िज़ा है"
शब्बेदारी वरसवा मुम्बई 27 सफ़र 2019
इस वास्ते ग़म शाह का रोके न रुका है!
ता हश्र ग़मे शह का निगहबान ख़ुदा है!!
दिखलाऐ न कोई मुझे जन्नत के मनाज़िर!
इस वक्त निगाहों में मेरी करबो बला है!!
हम लोग बपा मातमे सरवर न करें क्यों!
ये मातमे शह अजरे रिसालत की अदा है!!
ये फ़ैज़ है अकबर के कलेजे का जो अब भी!
हर सिम्त फक़त अल्लाहो अकबर की सदा है!!
जिस ख़ाक में मिल जाता है ख़ूने अबूतालिब!
वो ख़ाक फक़त ख़ाक नहीं ख़ाके शिफ़ा है!!
एक हम ही नहीं महवे ग़मे हज़रते शब्बीर!
"मग़मूम ग़मे शह में ज़माने की फ़िज़ा है"!!
क्या ख़ाक मिटाऐगी अज़ादारों को दुनिया!
शब्बीर का हर मातमी ज़हरा की दुआ है!!
चौदह सौ बरस हो गए फिर भी ग़मे शब्बीर!
महसूस ये होता है कि हर साल नया है!!
हुर बनने की हिम्मत है तो आ जाओ के अब भी!
बाबे करमे सरवरे ज़ीजाह खुला है!!
मानिन्द जेना है जो अज़ाख़ानऐ शब्बीर!
फिर शह का तबर्रुक भी तो जन्नत की गेज़ा है!!
सर तन से जुदा होता है फिर भी मेरा शब्बीर!
अल्लाह से उम्मत के लिए महवे दुआ है!!
हाँ शामे ग़रीबाँ के ये आसार हैं "आरिफ़"!
सादात के ख़ैमों में फक़त आहो बुका है!!
जनाब मोहम्मद असकरी
उर्फ़
आरिफ़ साहब