ग़ज़ल
राह तारीक सही फिर भी निकल जायेंगे
हम तो सूरज हैं, अँधेरों को निगल जायेंगे!
इसी उम्मीद पे जीता हूँ कि इक रोज़ ज़रूर
मेरे बिगड़े हुये हालात बदल जायेंगे!
तुम गिराकर हमें यूँ पस्त न कर पाओगे
हम बलँदी से भी गिर गिर के सँभल जायेंगे!
सुब्ह होने तो दे ऐ शब की बलाओं के असीर
तेरे गरदिश के सितारे सभी ढल जायेंगे!
भूखे सो जाते हैं मज़दूर भी कहके अकसर
भीक न माँगेंगे, फ़ाक़ों पे ही पल जायेंगे!
कुछ अमीरों के मफ़ादात की ख़ातिर, अफ़सोस
कुछ ग़रीबों के मकानात भी जल जायेंगे!
इनको कुछ दे नहीं सकते तो मुहब्बत दे दो
बच्चे बिन माँ के मुहब्बत से बहल जायेंगे!
कुछ दिनों का है ये दुनिया का ठिकाना आरिफ़
छोड़कर इसको नहीं आज तो कल जायेंगे!
मो० असकरी आरिफ़-
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