ग़ज़ल
आख़िर हुदूदे ज़ात से आगे निकल गया !
एक ग़म, ग़मे हयात से आगे निकल गया !!
ख़ामोशी अख़्तियार ही करनी पड़ी मुझे !
वो शख़्स मेरी बात से आगे निकल गया !!
सूरज तो दिन के साथ ही फिर ढल गया मगर !
क्यों चांद ढलती रात से आगे निकल गया !!
डरता था एक बच्चा बिछड़ते जो बाप से !
उंगली छुड़ा के हाथ से,आगे निकल गया !!
कल रात तुझको ख़्वाब में देखा तो यूं हुआ !
मै अपनी काएनात से आगे निकल गया !!
नाकामियां फिर उसके मुक़द्दर से मिट गई !
जो हद्दे मुमकिनात से आगे निकल गया !!
क़ुरआन ओ अहलेबैत का दामन न छोड़ कर !
मै भी पुल ए सिरात से आगे निकल गया !!
पानी को जाम ए तिशना दहानी पिला के कौन !
मुंह फेर कर फ़ुरात से आगे निकल गया !!
दुशवार रह गुज़र थी बड़ी ज़ीस्त की मगर !
आरिफ़ भी तजरबात से आगे निकल गया !!
(असकरी आरिफ़)
No comments:
Post a Comment