Saturday, 28 March 2020

غزل

ग़ज़ल
आख़िर हुदूदे  ज़ात से  आगे  निकल गया !
एक ग़म, ग़मे हयात से आगे निकल गया !!
ख़ामोशी अख़्तियार ही करनी पड़ी मुझे !
वो शख़्स मेरी बात से आगे निकल गया !!
सूरज तो दिन के साथ ही फिर ढल गया मगर !
क्यों चांद ढलती रात से आगे निकल गया !!
डरता था एक बच्चा बिछड़ते जो बाप से !
उंगली छुड़ा के हाथ से,आगे निकल गया !!
कल रात तुझको ख़्वाब में देखा तो यूं हुआ !
मै अपनी काएनात से आगे निकल गया !!
नाकामियां फिर उसके मुक़द्दर से मिट गई !
जो हद्दे मुमकिनात से आगे निकल गया !!
क़ुरआन ओ अहलेबैत का दामन न छोड़ कर !
मै भी पुल ए सिरात से आगे निकल गया !!
पानी को जाम ए तिशना दहानी पिला के कौन !
मुंह फेर कर फ़ुरात से आगे निकल गया !!
दुशवार रह गुज़र थी बड़ी  ज़ीस्त की मगर !
आरिफ़ भी तजरबात से आगे निकल गया !!
(असकरी आरिफ़)

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