Saturday, 28 March 2020

غزل

پرانی غزل 
 पुरानी ग़ज़ल

कोई तदबीर करो रास्ता हासिल निकले
कारवां होके रवां जानिबे मंज़िल निकले।
کوئی تدبیر کرو راستہ حاصل نکلے
کارواں ہوکے رواں جانبِ منزل نکلے

अब तो ये क़ल्ब की दौलत मिरी बेकार हुई
मार दे नैज़ा कि सीने से मिरा दिल निकले।
اب تو یہ قلب کی دولت مری بیکار ہوئی
مار دے نیزہ کی سینے سے مرا دل نکلے

सोचते  थे   कि  फ़िदा   जान   करेंगे   उनपर
हाए अफ़सोस वही ख़ुद मिरे क़ातिल निकले।
سوچتے تھے کہ فدا جان کریں گے اُن پر
ہاے افسوس وہی خود مرے قاتل نکلے

हम तो बेलोस वफ़ा  अपनी निभाते ही रहे
बेवफ़ाई के शिगूफ़ों में वो कामिल निकले। 
ہم تو بے لوث وفا اپنی نبھاتے ہی رہے 
بے وفائی کے شگوفوں میں وہ کامل نکلے

कैसा ये वक़्त पड़ा मुझपा कि अब मेरे हरीफ़
मिरे  हमराह   मिरे दर्द  में   शामिल   निकले।
کیسا یہ وقت پڑا مجھ پہ کہ اب میرے حریف
مرے ہمراہ مرے درد میں شامل نکلے

तू कोई मंतिक़ ओ साइंस ओ रियाज़ी तो नहीं
क्यों तिरे इश्क़ में फिर इतने मसाइल निकले?
تو کوئی منطق و سائنس و ریاضی تو نہیں
کیوں ترے عشق میں پھر اتنے مسائل نکلے

ज़िंदगी एक सफ़ीना है भंवर में आ़रिफ़
वो है क़िस्मत का धनी जो लबे साहिल निकले
زندگی ایک سفینہ ہے بھنور میں عارف
وہ ہے قسمت کا دھنی جو لبِ ساحل نکلے
سید محمد عسکری عارف-

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