Tuesday, 21 April 2020

غزل

ग़ज़ल
यूं ज़िंदगी में मिलते हैं कुछ अजनबी से लोग
बनते हैं कुछ ही रोज़ में वो  ज़िंदगी से लोग।

करने लगे हैं   इश्क़   अ़जब  तीरगी से लोग
ये क्या हुआ कि जलने लगे रोशनी से लोग।। 

मिलते  थे  पहले हंस  के  मिरे  हाले   ज़ार  पर
मिलते हैं अब वो मुझसे फ़सुरदा दिली से लोग।। 

महशर के   कुछ  अभी   तो   ये आसार   भी नहीं
फिर क्यों हैं इतना  मौत से ख़ाइफ़ अभी से लोग।। 

ढूंढा तो  हमने  ख़ूब  कि   इंसा   कोई   मिले
लेकिन जहाँ  मिले तो मिले आदमी से लोग।। 

चेहरे  अलग, ज़बान  अलग, रंग  भी  अलग
फिर क्यों मुझे ये लोग लगे एक ही से लोग।। 

फिरता है सर  जो  हाथों  में अपना लिए हुए
फिर जान मांग बैठे हैं आ़रिफ़ उसी से लोग।। 
असकरी आरिफ़

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