जो भी थे मुहम्मद के वफ़ादार सहाबा
बातिल से रहे बरसरे पैकार सहाबा
क़ुरआन ओ शरीयत के तरफ़दार सहाबा
इस्लाम पा मर मिटने को तैय्यार सहाबा
डरकर न कभी बारिशे पैकान से भागे
सर कट गये लेकिन न वो मैदान से भागे।
तौहीन जो करता रहा अहमद के वसी की
तस्लीम न कि जिसने इमामत भी अ़ली की
ताज़ीम न की जिसने कभी बिन्ते नबी की
तहक़ीर जो करता रहा ख़ालिक़ के वली की
उस पर तो तबर्रा किये बिन रह नहीं सकता
ऐसे को सहाबी मैं कभी कह नहीं सकता।
हुज्र इब्ने अ़दी, हज़रते सलमान ओ अबुज़र
मीसम हों कि मिक़दाद हों कि मालिक ए अशतर
नाफ़े हो कि अम्मार, हुज़ैफ़ा हों या क़मबर
असहाब थे सब इश्क़ वफ़ा अ़ज़्म के पैकर
बातिल से रहे सीना सिपर आख़िरी दम तक
पीछे न हटे हक़ से कभी एक क़दम तक।
हाँ मुनकिर ए ईवान ओ हुकूमत है सहाबी
हाँ मोतरिफ़ ए हुक्म ए इमामत है सहाबी
हाँ पैकर ए ईमान ओ हमीय्यत है सहाबी
हाँ मोतक़िद ए क़ौल ए नबूव्वत है सहाबी
इल्ज़ाम नबी पर जो धरे दुश्मन ए दीं है
गुस्ताख़ ए मुहम्मद है सहाबी वो नहीं है।
जो आख़िरी दम दे न मुहम्मद को क़लम भी
और बोले मिरे वास्ते क़ुरआन है काफ़ी
किस तरह उसे मान लूं आका़ का सहाबी
जिसने मिरे सरकार की तौक़ीर भुला दी
वो ख़ाकी, गुनहगार है नूरी तो नहीं है
फिर ऐसे की ताज़ीम ज़रूरी तो नहीं है।
जो ग़स्ब करे फ़ातेमा ज़हरा से फ़दक भी
सरकार की जिस शख़्स ने तहरीर भी फाड़ी
और आग दरे फ़ातेमा ज़हरा पे लगा दी
नाराज़ रही जिनसे मुहम्मद की दुलारी
हम क्या हैं ख़ुदा और नबी करते हैं लानत
उन लोगों पा हसनैन ओ अ़ली करते हैं लानत
असकरी आरिफ़
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